Saturday, 9 April 2016

कविता -" कुछ खो रहें हैं हम "

रंजिशसी कुछ होती है दिलको, जब नंगे पैरोंको कडी धूपमें खेलते देखता हूँ
हमें तो आजकल AC की ठंडी हवा भी रास नही आती






















मनचाहे इत्तर है अलमारीमें पर न जाने गिली मिट्टी की वो पुरानी खुशबू की कमी, क्यूँ आजभी खलती है



ना 'DG Cam' का हमें इल्म था ना 'Selfie' की ललचाहट, यादें तो बस अपने आप दिलोंमें कैद हुआ करती थी 




वो बरगदके पेडोंके लटकते झूले हो या आसमानमें टुटते तारे, सारे आजभी सपनोंमे सैर करने चले आ जाते है



आजभी वो  तितलीयोंके पिछे लगाई दौड याद आती है.....वो गिलहरीयोंसे की हुई बातें याद आती है







वो बचपनकी सादगीही थी की गैरोंमेंभी अपनापन मिल ही जाता था वरना आज....... कुछ ना 
ही कहूँ तो बेहतर है







सब  कहते है बचपन बहुत सुहाना होता है..... शायद इसीलिए वो मौसम बीत जाने पर हर शक्स परेशानसा नजर आता है 


दिल आजभी बचपनकी उन गलीयारोंमेंही कहीं अटका पडा है और मैं पगला, बेफ़िजूलही जिम्मेदारियों का कंबल ओढे उसे फ़ुसलानेकी नाकामसी कोशिश रोजाना किए जा रहा हूँ


बस एक इल्तिजा है यारों, हम तो हमारा बचपन तकरिबन खो ही चूके है...... हो सके तो अनेवाली पिढी का बचपन संवारनेमे अभीसे जूट जाओ......क्या पता कल हमें हमारा खोया हुआ बचपन उन्हींसे दोबारा मिल जाये!!!



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